भारत के पुनरुत्थान के बारे में विवेकानंद जी की सोच स्पष्ट और सरल थी। वे चाहते थे "नये भारत का उदय हो"। विवेकानंद नेअपनी मातृभूमि के उत्थान के लिए जिस राष्ट्रवाद की कल्पना करी थी, उसके मूल में मानवतावाद, आध्यात्मिक विकास और सांस्कृतिक नवजागरण है। अपने भाषणों में वे लोगों को भारत की महान संस्कृति का उदाहरण देते हुए कहते थे "हम चिरकाल से इस विश्व को धर्म, दार्शनिक ज्ञान और अध्यात्म का दान देते आ रहे है।"
वे अपने भाषणों में भारत भूमि की महानता का वर्णन करते थे - "भारत भूमि ही प्राचीन भूमि है जहां सबसे पहले तत्वज्ञान ने कहीं भी जाने के पहले अपना निवास बनाया था। हमारे भारत की मिट्टी बड़े-बड़े ऋषि मुनियों की चरण धूल से पवित्र हो चुकी है। धर्म और दर्शन के आदर्श का उच्चतम विकास यही हुआ है। यह वही भारत है जो कई शताब्दियों से अनेकानेक विदेशी आक्रमण, अनेक प्रकार की राजनीतिक उथल-पुथल और अनेक अत्याचारों को सहन करते हुए अक्षुण्ण बना हुआ है।" वे बार-बार भारतीय जनता का आवाह्न करते हुए कहते थे "मातृभूमि या जननी जन्मभूमि रूपी विराट देवता की उपासना ही पुनरुद्धार का प्रथम सोपान है।"
भविष्य का भारत नवीन भारत हो, और ऐसी इच्छा रखते हुए वह कहते थे- "प्राचीन गौरव को हमेशा आँखों के सामने रखकर वर्तमान को पूर्व की अपेक्षा उच्चतर और महिमाशाली बनाना है I अतीत की महत्ता को ध्यान में रखते हुए उससे भी श्रेष्ठ और भव्य भारत बनाना है I जैसे सूर्योदय के पश्चात सूर्यास्त अवश्यंभावी है उसी तरह उन्नति के बाद अवनति का युग भी आता है I जैसे एक विशाल पेड़ पर सुंदर पके फल उत्पन्न होते हैं, लेकिन कभी न कभी वह नीचे मिट्टी में गिर जाते है, मिट्टी में बीज बनते हैं, फिर अंकुर, फिर पौधे, फिर पेड़ और फिर पेड़ पर फल बन जाते हैं। इसी प्रकार अवनति हो भी जाए तो इसी अवनति से भावी भारत का उदय होना निश्चित है।
सबसे ऊँचा आदर्श धर्म है भारत के उद्धार और पुनरुत्थान के लिए भारत के विभिन्न धमों का सम्मिलन आगामी सर्वश्रेष्ठ भारत का प्रथम सेतु है। लोक कल्याण हेतु के लिए केवल अपनी जाति की भलाई के लिए वाद-विवादों को भूलना होगा। संस्कृत हमारी सर्वश्रेष्ठ भाषा और गौरव का साधन है। आने वाली पीढ़ी को इसे सिखाना आवश्यक है, क्योकि इसके बिना चिरस्थायी उन्नति नही हो सकती। उन्होंने उस समय की नीची जाति कहलाने वालो को आह्वान देते हुए कहा कि "तुम्हारी अवस्था को उन्नत करने का एकमात्र उपाय संस्कृत है। जिससे तुम जाति भेद मिटा सकते हो। विवेकानंद "ब्राह्मणों को भी ललकार कर कहते हैं उन्हें अपने ज्ञान और अनुभव से सभी भारतवासियों को उन्नत करना चाहिए। यह स्मरण रखें कि -
भारत के पुनरुत्थान के बारे में विवेकानंद जी की सोच स्पष्ट और सरल थी। वे चाहते थे "नये भारत का उदय हो"। विवेकानंद ने अपनी मातृभूमि के उत्थान के लिए जिस राष्ट्रवाद की कल्पना करी थी, उसके मूल में मानवतावाद, आध्यात्मिक विकास और सांस्कृतिक नवजागरण है। अपने भाषणों में वे लोगों को भारत की महान संस्कृति का उदाहरण देते हुए कहते थे "हम चिरकाल से इस विश्व को धर्म, दार्शनिक ज्ञान और अध्यात्म का दान देते आ रहे है।"
भारत के पुनरुत्थान हेतु कड़ी संकल्प शक्ति को भी वे बहुत जरूरी मानते थे। वे कहते थे "चार करोड़ अंग्रेज हम तीस करोड़ भारतीयों पर शासन कर रहे हैं। एकजुट होना और संगठित होना ही शक्ति का मूल है। ये अंग्रेज अपनी सारी इच्छा शक्ति एकत्रित किये हुए हैं, और हम तीस करोड़ होते हुए भी अलग है। अतः भारत के भविष्य को उज्जवल करने का मूल-मंत्र संगठन, शक्ति संग्रह और इच्छाशक्तियों का एकीकरण है।
विवेकानंद जी ने अपने भाषणों में, लेखन में, पत्र व्यवहारों में, परिचर्चा में हिन्दू और हिंदुत्व के साथ- साथ मातृभूमि को शक्तिशाली बनाने की कल्पना बार-बार पेश करी है, इसी कारण से उन्हें "हिन्दू पुनरुत्थानवादी" के रूप में चित्रित किया गया। विवेकानंद छुआछूत के कट्टर आलोचक थे। सिस्टर निवेदिता ने अपनी पुस्तक "वॉन्डरिंग विद स्वामी विवेकानंद" में उनको "सांस्कृतिक संस्लेषक" की उपाधि दी है।
विवेकानंद जी कहते थे "हर देश का अपना मूल स्वाभाव होता है, भारत का मूल स्वाभाव आध्यात्मिकता है, उनकी पुख्ता मान्यता थी कि बिना आध्यात्मिक उत्थान के भारत में कोई बदलाव नहीं होगा।" वे कहते थे "हर देश का एक गंतव्य होता है, हर देश को दूसरों को एक सन्देश देना होता है, हर देश को एक मिशन पूरा करना पडता है। हमें अपने मिशन को समझना होगा, उस गंतव्य को समझना होगा जहां हमें जाना है, उस भूमिका को भी समझना होगा।
स्वामी जी जिस भूमिका को समझने की बात करते थे वह नये मनुष्य और नए समाज के निर्माण की भूमिका थी। करुणा, व्यक्तिगत स्वतंत्रता, समानता और विश्व बंधुत्व पर आधारित आधुनिक शक्तिशाली भारत के निर्माण की भूमिका थी। इसीलिए उन्हें "भारत के पुनरुत्थान गौरव के वास्तुकार " के रूप में जाना जाता था। युवाओं को आह्वान देते हुए उनके उद्धरण थे "एकजुट हो जाओ, अपने पर विश्वास रखो, जब तक जवानी का तेज रहे, दम न लो, कार्य में लगे रहो। जैसे ताजा खिला फूल ही ईश्वर के चरणों में अर्पण किया जाता है, वैसे ही बलवान, तेजस्वी, निश्चल और विश्वासपात्र युवाओ को मातृभूमि के लिए अपना शीश अर्पण करना होगा I
अमेरिका और ब्रिटेन की यात्राओं के दौरान वह इन देशो में नागरिको को प्राप्त व्यक्तिगत स्वंतंत्रताको देखकर बहुत प्रसन्न थे और भारतीयों के लिए भी ऐसा चाहते थे। उनके विचार से ऐसा राष्ट्र बेकार है जो अपने लोगों की आजादी सुनिश्चित न कर सके और जिसमे हर किसी को अपने तरीके से जीने का हक ना हो। विवेकानंद का भारत "प्रगतिशील मूल्यों पर आधारित राष्ट्रीयता वाला भारत है ना कि हर बात के लिए अतीत की ओर ताकने वाला।"
"स्वामी विवेकानंद एंड मोडर्निज़ेशन ऑफ हिन्दूइज़्म" में हिलट्रूड रुस्टाव ने लिखा है कि - विवेकानंद ऐसा समाज बनाना चाहते थे जहां बड़े से बड़ा सत्य उद्घाटित हो सके और हर इंसान को उसके देवत्व (अहमियत) का अहसास हो, जहां हर किसी को विचारों और कमों की स्वतंत्रता हो और अगर ऐसा नहीं तो उस राष्ट्र को नष्ट हो जाना चाहिए।
विवेकानंद हर तरह की विविधता के समर्थक थे। बहुलता पर आधारित राष्ट्रवाद उनका लक्ष्य था न कि एक धर्म, एक शैली और एक राजनीतिक विचार के आसपास पनपनेवाले राष्ट्रवाद। उनका कहना था, "हल पकडे हुए किसान की कुटिया से नये भारत का उदय हो, मछुआरों के दिल से नये भारत का उदय हो, मोची और दलितों से नए भारत का उदय हो, पंसारी की दुकान से नए भारत का उदय हो, उसे कारखानों से उदय होने दो, बाजार में उसका जन्म हो, बगीचों और जंगलों से उसे निकलने दो। पर्वतो और पहाड़ से उसका उदय हो। इससे अधिक एक वास्तुकार और क्या करता है?
विवेकानंद वे नहीं है जिनके कथनों को हिन्दू समर्थक होकर पेश किया जाता है। विवेकानंद वह हैं जिन्हे भारत की मिट्टी के कण-कण से प्रेम था। भारत मेरी जिंदगी है। भारत के देवी देवता मेरे देवी-देवता है। भारत का समाज मेरे बचपन का पालना है और मेरी जवानी के आनंद का बगीचा। मेरे बुढापे का कIशी है। यही मेरा स्वर्ग है। उनकी कल्पनाएं काफी हद तक हमारे समाज में मूर्त रूप लेकर साकार हुई है। तो ऐसे थे स्वामी विवेकानंद जो मानते थे कि नैसर्गिक और स्वस्थ राष्ट्र का विकास तब ही होगा जब न सिर्फ धमों के बीच अपितु पूरब और पश्चिम की संस्कृतियों के बीच भी बराबरी का आदान-प्रदान हो इसलिए उन्हें "भारत के पुनरुत्थान गौरव के वास्तुकार " के रूप में जाना जाता था।
इस लेख के बारे में
डॉ. सुनीता फड़नीश का लेख 'स्वामी विवेकानंद: भारत के पुनरुत्थान गौरव के वास्तुकार' 'द ट्रेलब्लेजर्स 2023' नामक राष्ट्रीय स्तरीय लेखन प्रतिस्पर्धा में 'हॉनररी मेंशन्स' से सम्मानित किया गया। यह प्रतिस्पर्धा राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर 'यूथिस्थान फाउंडेशन' द्वारा आयोजित की गई थी। इस लेख की शुरुआत भारतीय संत और योगी स्वामी विवेकानंद के महत्वपूर्ण योगदान के प्रति एक नई दृष्टिकोण देने पर केंद्रित है, जिन्होंने भारतीय समाज को जागरूक करने और उसे नई ऊँचाइयों तक पहुँचाने के लिए अपने उद्देश्यों को प्रेरित किया। यह लेख उनके जीवन, विचार, और कार्यों की महत्वपूर्णता पर चर्चा करता है, जो भारतीय युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणास्त्रोत हैं।
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