भारत भूमि देवभूमि वह महान धरा है जहाँ प्रत्येक युग में महामानव किसी न किसी रूप में अवतरित होते रहे हैं। महान विचारक, महान संत, अवतार, वैज्ञानिक, गणितज्ञ, भौतिक - रसायन शास्त्र - अर्थशास्त्र, वास्तुशास्त्र आदि के विशेषज्ञ आदि अनेक रूपों में समय-समय पर मानव का पथप्रदर्शन करने हेतु महान व्यक्तित्व समाज में आते रहे हैं। प्राचीन भारत से आधुनिक भारत के विकास का पथ हमेशा गौरवशाली रहा है। जब-जब मानवता किसी गहन तम से कालिमा के गर्त में डूबने की दिशा में अग्रसर होती है, उसके नवनिर्माण के लिए कोई वास्तुकार धरा पर आ जाया करता है। युग पुरुष युग निर्माण के कार्य में इतने महान विचार रख देते हैं कि हिचकोले खाती मानवता रूपी नैया एक ठहराव के साथ अपने रास्ते पर चलती हुई मंज़िल पा लेती है। वे देश के विकास का मार्ग कुछ में इस कद्र बना देते हैं। जिस पर चल कर आम जन भी अपना सहयोग देने के लिए तैयार हो जाते हैं। जन जन का साथ, हर एक का साथ, प्रत्येक का साथ ही देश के विकास की राह खोल देता है।
महान विचारक, युवा विचारक, युवाओं के विचारक, युवाओं के लिए विचारक; का नाम यदि ज़हन में आता है तो वह है स्वामी विवेकानंद । जो भारत की धरा पर ही नहीं संपूर्ण विश्व की धरा पर अपनी सरल-सहज-स्वाभाववक वाणी में कुछ ऐसा प्रभाव छोड़ आए कि युगों-युगों तक उनकी वाणी, उनके विचार भारत को गौरवान्वित पथ दिखते रहेंगे। आज का भारत विश्व के विकासशील देशों में से एक ऐसा देश है जिसकी लगभग 60% जनसंख्या युवा है अर्थात 18 से 35 वर्ष की आयु के मध्य की है। युवा दिमाग व शरीर जोशीला होता है, यदि उसे सही व सटीक पथप्रदर्शक मिल जाए, जो उसमें चुनौतियों से लड़ने की क्षमता डाल सके; जो उसमें हर हाल में डटे रहने का जज़्बा भर सकें तो वे देश का पुनरुत्थान सरलता से कर सकते हैं। स्वामी विवेकानंद का एक विचार ही यदि गहराई से सोचा जाए तो देश के निर्माण का वास्तुकार सिद्धः होता है- "उठो, जागो और तब तक नहीं रुको जब तक लक्ष्य ना प्राप्त हो जाए ।"
विवेकानंद ने एक बात, एक विचार कह कर भारत के पुनरुत्थान की राह खोल दी। किसी भी देश के उत्थान के लिए वहां के नागरिकों का जोशीला होना, जरूरी है, ऐसा जोश जो किसी भी कठिनाई से, किसी भी रुकावट से कम न हो; अपितु जोश ऐसा हो जो हर करठनाई - हर परेशानी के बाद बढ़ता जाए। जो किसी की निंदा से भी कम न हो। ‘उत्साह’ निबंध में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि- “कर्म में आनंद अनुभव करने वालों ही का नाम ही कर्मव्य है| धर्म और उदारता कमों के विधान में ही एक ऐसा दिव्य आनंद भरा रहता है कि कर्ता को वे कर्म ही फल – स्वरूप लगते हैं|” गीता में भगवान कृष्ण ने इसे निष्काम कर्म योग कहा है, अर्थात जब हम किसी कार्य को करने के लिए एकाग्रचित होकर कार्य करते हैं, तब ध्यान व सिर्फ कार्य करने की तरफ रहता है, अन्य किसी तरफ अर्थात फलादि की तरफ भी नहीं। तब कर्ता अपनी सारी ताकत पूर्ण उत्साह के साथ कार्य करने की तरफ लगाता है।
विवेकानंद जी ने देश के उत्थान के लिए देश की युवा शक्ति का आह्वान किया और यह बात कहीं कि अपने लक्ष्य प्राप्ति के लिए प्रयासरत रहना है। जिस देश की 60% जनता युवा है और यदि उसमें पूरा जोश भर दिया जाए तो उसका पुनरुत्थान कोई रोक नहीं सकता। जिस देश का अतीत अत्यंत गौरवशाली रहा है, उस देश का वर्तमान भी गौरवशाली बना रहे | इसके लिए विवेकानंद जी के विचार किसी प्रकार महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं, अर्थात निरंतर देश व देशवासियों के विकास का मार्ग प्रशस्त कर रहे हैं। विवेकानंद ने भारतीय सभ्यता संस्कृति व सच्चे जीवन मूल्यों को न केवल भारतीयों तक अपितु विश्व भर में जन-जन तक पहुँचाने का अथक प्रयास किया। उनके अनुसार भारतीयता की सच्ची पहचान यही है कि हम अच्छे मनुष्य बने। सबसे ऊपर मानव व मानवता है। यदि हम भारतीय संस्कृति व मानवता का आधार रामायण अर्थात रामकथा पर नजर डाले तो पता चलता है कि उस कथा का खलनायक भी प्रचंड विद्वान, महान शिव भक्त, अतुलनीय वीर है, पर राम ही विजयी क्यों हुए ? क्योकि वे मनुष्यता पर राज करते हैं, जब तक रावण मनुष्यों पर राज करता है। विवेकानंद ने विचार दिया कि देश के उत्थान के लिए पहली जरूरत वहाँ के युवा का जोशीला व संस्कार वान होना है। उन्होंने युवा वर्ग को चरित्रवान अर्थात महान चरित्र से युक्त होने के लिए पांच सूत्र दिए - "आत्मविश्वास, आत्मनिर्भरता, आत्मज्ञान, आत्मसंयम और आत्मत्याग"| जिस देश के युवा के पास ये पांच गुण मौजूद हो, वह देश निरंतर विकास करेगा । ये वे गुण है जो न केवल भौतिक उन्नति की अपितु आध्यात्मिक उन्नति की राह भी खोलते हैं। विवेकानंद उन गुणों को अपनाने का सूत्र या मंत्र देते हैं। जिनसे खुद में परिवर्तन किया जा सके । कहा जाता है कि खुद बदलों तो संसार स्वयं बदल जाएगा।
किसी भी देश की युवा पीढ़ी उस देश की कर्णधार है। यदि वह शिक्षित संस्काररत हो जाए, तो वह आत्मनिर्भर बनेगा क्योंकि सस्कारों से ही उसमें खुद पर विश्वास, खुद पर संयम, खुद के त्याग की भावना व खुद को जानने की जिज्ञासा आएगा । कुदरत ने मानव में अद्भूत क्षमता दी है, यदि वह अपनी क्षमता को सही दिशा में लगाए तो बहुत कुछ कर सकता है। एक विचारक अपने विचारों से किसी के जीवन में परिवर्तन लाने का महान कार्य करता है और उसी परिवर्तन से वह व्यक्ति विशेष अपने व्याहारिक, सामाजिक, पारिवारिक, आध्यात्मिक, आर्थिक आदि जीवन में परिवर्तन ला सकता है। जब एक व्यक्ति विशेष की सोच व मानसिकता में परिवर्तन आता है वह सही दिशा में कार्य करता है तब उससे जुड़े इर्द-गिर्द के बहुत सारे लोगों के जीवन में परिवर्तन आता है। इस प्रकार समाज में परिवर्तन आता है और देश नवनिर्माण व देश के उत्थान के कार्य को गति मिलती है। किसी भी देश के उत्थान का सबसे सशक्त साधन शिक्षा है, क्योंकि शिक्षा से ही सोच बदलती है और शिक्षा से ही बुद्धि का विकास होता है।
स्वामी जी ने कहा - "हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र बने, मानव विकास हो, बुद्धि का विकास हो और मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके|” स्वामी जी के इस एक विचार पर यदि गहन अध्ययन किया जाए तो स्पष्ट होता है कि सबसे पहले शिक्षा के माध्यम से उच्च चरित्र निर्माण की अर्थात एक ऐसे चरित्र की आवश्यकता है जिसमे काम करने की गहरी लगन हो, मानव खुद से चोरी न करें अर्थात अपने कर्त्तव्य व कर्म के प्रति सजग हो, देश व समाज में अराजकता न फैलाए प्राणी मात्र के प्रति मानवीय संवेदनाओं से युक्त हो; जैसे ही चरित्र में उच्च चरित्र संबंधी ये गुण आएंगे, प्राणी का मानसिक विकास होगा, मन का विकास अर्थात भावों की शुद्धता - पवित्रता, दूसरों के प्रति परोपकार की भावना का विकास, भाईचारे की भावना, जातीय प्रेमभाव, मन का विकास जब समाज के साथ जुड़ कर कार्य करता है तो बुद्धि तीव्र गति से कार्य करती है, मनुष्य रोजगार के अवसर बढ़ाता है क्योंकि उसकी बुद्धि व मन सटीक दिशा में कार्य करते हैं, देश के निर्माण की नींव का यही आधार बनता है।
आज इस बात की महती आवश्यकता है कि स्वामी विवेकानंद के एक-एक विचार का गहन अध्ययन करने के लिए युवा वर्ग आगे आए, उनके विचारों के अनुसार शिक्षा का प्रचार-प्रसार हो और उनके विचार एक महान वास्तुकार के रूप में देश के पुनरुत्थान के लिए सहायक हैं | इसमें कोई भी संशय नहीं है। भारत देश का गौरवशाली अतीत आज भी कहीं दूर नहीं है, बस जरूरत है तो विवेकानंद जैसे वास्तुकार के विचारों का गहन मंथन-हचंतन-अध्ययन-भजन-अध्ययन व अध्यापन करने की एक विचार भी मील का पत्थर साबित हो सकता है।
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