कैसे, आधुनिक शिक्षण प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा के गौरव को पुनः प्राप्त कर सकता है? इसे समझने के लिए प्राचीन गुरु-शिष्य परंपरा पर क्यों न एक नजर डाली जाए। जिसके अनुसार-
गुरुर्ब्रह्मा, गुरुर्विष्णु l गुरुर्देवो महेश्वरा ।। गुरु: साक्षात्,परम ब्रम्हा । तस्मै श्री गुरुवे नमः ।।
इस श्लोक में हमें, प्राचीन काल में गुरु के गौरव और उनके सर्वोच्च स्थान का प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देता है। सनातन धर्म के अनुसार ब्रह्मा सृष्टि के सर्जक, विष्णु पालक और महेश यानि शिव संहारक माने जाते हैं।अर्थात इन तीनों देवों के समकक्ष, गुरु को रखा गया है। गुरु को इनके समकक्ष ही नहीं बल्कि इनसे भी ऊपर का दर्जा प्राप्त है ,क्योंकि इन तीनों से हमारा परिचय भी तो गुरु ही कराता है।
तभी तो कबीर ने कहा है-
गुरु-गोबिंद दोऊ खड़े, काके लागूं पायं।। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।
प्राचीन ग्रंथों में शिरोमणि “रामचरितमानस” में वर्णित दशरथ-पुत्र राम के गुरु वशिष्ठ, जिन्हों ने राम को पुरुषोत्तम बना दिया । और अर्जुन के गुरु, द्रोणाचार्य जिन्होंने एकलव्य को शिक्षा देने से इंकार किया तो एकलव्य ने उनकी प्रतिमा को ही गुरु मानकर धनुर्विद्या में प्रवीणता हासिल की । पुराने समय में गुरु-शिष्य परंपरा के अनुसार शिष्य को आश्रम में सभी सुख-सुविधाओं की अपेक्षा किए बिना प्राकृतिक वातावरण में एकनिष्ठ और संकल्पित होकर साधना करनी होती थी । चाहे वह राजा हो या रंक एक ही छत्र-छाया में शिक्षा ग्रहण करते थे। गुरु भी पूर्ण समर्पण के साथ उन्हें शिक्षा देते थे। शिष्य बिना किसी संदेह के अपने गुरु के प्रति पूरी निष्ठा और सम्मान की भावना के साथ तल्लीन होकर शिक्षा ग्रहण करते थे। किंतु आधुनिक समय में उपरोक्त उल्लेख एक काल्पनिक (फैंटेसी ) लगता है I
आज छात्रों में अध्यापकों के प्रति वह आदर, वह श्रद्धा और विश्वास नजर नहीं आता । क्या, इसका सारा दोष केवल छात्रों की बदलती सोच को दिया जाना चाहिए? क्या, इस सोच की उपज भी उतनी ही दोषी नहीं है।अध्यापकों की गरिमा के धुंधलेपन, या कहिए मिट जाने का कारण क्या ,स्वयं अध्यापक ही नहीं है? अगर पूरी तरह उन्हें दोषी न माना जाए तो क्या, हमारा सिस्टम, हमारी शिक्षा -प्रणाली निर्दोष मानी जा सकती है? आज स्कूल और कॉलेज एक पैसा कमाने वाली फैक्ट्री जैसे दिखाई देते हैं। जहां आदर्श केवल मशीनों को चमकाने वाली पॉलिश से ज्यादा कुछ नहीं । इन मशीनों से उत्पाद के रूप में लोग पैसा ही चाहते हैं, पैसा ही लगाते हैं और पैसा ही कमाते हैं। दो का चार बनाने की सोच प्राथमिक हो गई है।
अवश्य ही इस स्थिति को बदला जा सकता है। जब हम शिक्षा का अर्थ, केवल पुस्तकी ज्ञान, ऊंची डिग्री, अच्छी नौकरी और अच्छी पदवी तक ही सीमित न रखें। हमें शिक्षा का अर्थ, मानवीय मूल्यों से रचित मानव में देखना होगा। हमें शिक्षा का अर्थ एक ऐसे परिवार के रूप में ढूंढना होगा, जहां राम जैसा पुत्र और भरत जैसा भाई हो हमें शिक्षा का अर्थ ऐसे समाज के साथ जोड़ना होगा, जिसमें धर्म-जाति के नाम पर दंगे न हो । देश तभी शिक्षित माना जाए जब देश का नेता राम जैसा हो, न कि कुर्सी बचाने के लिए सारे मानवीय मूल्यों को ताक पर रख दे।
इसके लिए पाठ्यक्रम में सभी विषयों के साथ नैतिक मूल्यों की शिक्षा भी देनी होगी। शिक्षण कार्य एक आय का स्त्रोत न मानकर, छात्रों के सर्वांगीण विकास के सहायक के रूप में प्रस्तुत करना पड़ेगा। अध्यापकों को अपने विषय में पूरी तरह महारत हासिल करनी होगी। जिससे विद्यार्थी पूर्ण विश्वास और समर्पित भाव से उनके ज्ञान को आधार मानकर, लक्ष्य प्राप्ति में जुट जाएं। अध्यापकों को स्वयं नैतिक मूल्यों से समाहित व्यवहार करना होगा, क्योंकि अगर हम स्वयं उस राह पर चलते हैं, तभी दूसरे पथिक को विश्वास दिला सकते हैं कि यह सही रास्ता है और तुम्हें तुम्हारी निर्धारित मंजिल की ओर ले जाएगा। अध्यापकों को छात्रों के आधुनिक परिवेश के साथ, बदलते मूल्यों के साथ सामंजस्य बना ते हुए उन्हें शिक्षा देनी होगी। उनकी आवश्यकताओं, उनकी प्राथमिकताओं को ध्यान में रखते हुए उनका मार्गदर्शन करना होगा।
अगर शिक्षार्थी से अनुशासित और मर्यादित व्यवहार अपेक्षित है, तो अध्यापकों को भी इनका पालन करना होगा। शिक्षण कार्य केवल एक आय का स्त्रोत न माना जाए बल्कि शिक्षकों को इन्हें अपनी रूचि का विकल्प बनाना होगा। शिक्षक को अपने ज्ञान को सामयिक और नवीन बनाने के लिए हमेशा प्रयासरत होना चाहिए।उसमें वर्तमान घटनाक्रम, वर्तमान विचारधारा और वर्तमान कार्य प्रणालियों के बारे में जागरूकता होनी चाहिए। आज शिक्षक को शिक्षार्थी के साथ एक मित्र की तरह भी पेश आना होगा। जिससे शिक्षार्थी मन में उठती शंकाओं और ज्ञान पिपासा को अपने शिक्षक के साथ साझा कर सके। मित्र के प्रति जो अखंड विश्वास पाया जाता है, वह विश्वास शिक्षार्थी के मन में शिक्षक के प्रति जागना चाहिए, तभी वह अपने शिक्षक के बताए मार्ग पर चलने से संकोच नहीं करेगा, हिचकिचाएगा भी नहीं।
विषय-ज्ञान के साथ-साथ प्राचीन परंपरा, प्राचीन सभ्यता, प्राचीन मान्यताओं, प्राचीन संस्कारों और प्राचीन संस्कृति की शिक्षा भी अनिवार्य रूप से दी जानी चाहिए। इनकी महत्ता और इनकी श्रेष्ठता का आभास शिक्षार्थी को कराना होगा। शिक्षा व्यवहारिक और नैतिक मूल्यों में संतुलन बनाए रखें तो शिक्षार्थी को नैतिक मूल्य एक फैंटेसी न लगकर अपने व्यक्तित्व का एक अनिवार्य और सामान्य अंग प्रतीत होंगे। मानवीय मूल्यों जैसे सभी धर्मों के प्रति समान और आदर भाव, दूसरों के जीवन मूल्यों के प्रति आदर की भावना सहयोग की भावना, मिलजुल कर रहने की महत्ता अगर शिक्षक द्वारा शिक्षार्थी को समझाई जाए, तो शिक्षा का उद्देश्य भी सफल होगा और शिक्षार्थी के वैचारिक दृष्टिकोण में भी बदलाव आएंगे।
शिक्षण पद्धति को केवल सैद्धांतिक और सूत्रीय न बनाकर, उसे रुचिकर और व्यवहारिक बनाना चाहिए। छात्रों का जो जुड़ाव आज नई तकनीकों, नई सुविधाओं की ओर बढ़ रहा है, वह रोकना तभी संभव है, जब शिक्षार्थी, शिक्षक द्वारा प्रयोग की जाने वाली शिक्षण पद्धति की ओर आकर्षित हो। जिस तरह ईश्वर के प्रति आदर भाव तभी जागता है, जब हमारे मन में यह विश्वास उमड़ता है कि ईश्वर के द्वारा बताया गया मार्ग ही सत्य है और यही मेरे लिए हर तरह से उचित भी है। उसी तरह विद्यार्थी के मन में भी अध्यापकों के प्रति यह अखंड विश्वास पनपना चाहिए। इसके लिए शिक्षक को अपने सभी स्वार्थों से किनारा कर, निर्भीक होकर और शिक्षण कर्म के प्रति पूर्ण समर्पण के साथ शिक्षा देनी होगी ।
प्राचीन गुरुओं की तरह अपनी स्वयं की आवश्यकताओं से समझौता करके, शिक्षार्थी के भविष्य को संवारने और
उनको सही मार्गदर्शन देने के लिए प्रति बद्ध होना पड़ेगा। और अगर ऐसा हुआ तो निसंदेह छात्रों के मन में भी अपने अध्यापक के प्रति, अपने शिक्षक के प्रति अखंड विश्वास और आदर अवश्य उत्पन्न होगा और दावे के साथ कहा जा सकता है कि गुरु-शिष्य परंपरा एक नए गौरवशाली रूप में हमारे सामने पुनः प्रस्तुत होगी ।
इस अखंड सत्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि-
शिक्षक कभी साधारण नहीं होता। क्योंकि प्रलय और सृजन उसकी गोद में पलते हैं।
About this article
In the rich tapestry of India's heritage, the 'Guru-Shishya Parampara' has long been revered as a sacred thread that weaves together knowledge, wisdom, and tradition. In "गुरु-शिष्य परंपरा और उसकी गरिमा," our 'Honorary Mention' article in 'The Nation Builders 2023,' Abheesht Shrivastava embarks on a compelling journey to illuminate the profound significance of this ancient mentor-student tradition. Amidst the complexities of our modern world, he passionately advocates for its preservation and revival, offering a beacon of hope to reignite the flame of the Guru-Shishya legacy.
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