रोमन सेना का एक प्रसिद्ध सेनापति था क्विंटस मैक्सिमस फेबियस। हेनिबाल के युद्ध में परिस्थितियां कुछ ऐसी थीं कि उसका हारना तय था। उसके सैनिक लड़ने और मरने पर उतारू थे किंतु उसे पता था कि सामान्य युद्ध में उसकी पराजय सुनिश्चित है। उसने परंपरागत युद्ध प्रणाली को खारिज करते हुए एक नई युद्ध नीति सोची। वह अपने सेना को एक ऐसे स्थान पर ले गया जहां युद्ध होने पर बढ़त हासिल हो सकती थी। उसने लंबे समय तक विरोधी सेना का इंतजार किया और अंततः अपने धैर्य के बल पर बहुत बड़ी विपक्षी सेना को युद्ध में हरा दिया। उसका नारा था-सही समय का धैर्यपूर्वक इंतजार करो और सही समय आने पर अवसर मत चूको। उसकी युद्ध नीति इतनी सफल हुई कि वह रोम के समाज में मुहावरा बन गया। १९वी सदी में इंग्लैंड में जब समाजवाद का विकास हुआ तो उसी के नाम से प्रेरित होकर फेबियन सोसाइटी बनी जिसकी कोख से लेबर पार्टी का जन्म हुआ।
ऐसे तमाम उदाहरण इतिहास में बिखरे हुए है जहाँ किसी ने पुराने ढर्रे पर चलने से मना किया, अपने हाथों नई राह गढ़ी और बाद में इतिहास ने उसके महत्व को पहचाना। विशिष्टता की खोज ही वह निर्णायक कड़ी है जो हमें दुनिया में विशिष्ट स्थान दिला सकती है, नहीं तो हम भी उसी भीड़ का हिस्सा होने को बाध्य हैं जिसे न तो वर्तमान जानता है और न ही इतिहास पहचानता है। स्वामी विवेकानन्द अपने इस कथन के जरिए प्रत्येक व्यक्ति को अपनी उस विशिष्टता की खोज करने को प्रेरित करतें हैं- " एक विचार लो। उस विचार को अपना जीवन बना लो। उसके बारे में सोचो, उसके सपने देखो, उस विचार को जियो। अपने मस्तिष्क, मांसपेशियों, नसों, शरीर के हर हिस्से को उस विचार में डूब जाने दो, और बाकी सभी विचार को किनारे रख दो। यही सफल होने का तरीका है।"
जिस भारत में विवेकानन्द का जन्म हुआ था, वह औपनिवेशिक शासन द्वारा शोषित, दमित और भयभीत भारत था। उस समय भारतवासियों में अपने ऊपर विश्वास करने का गुण शायद ही रहा हो क्योंकि ब्रिटिश शासन का प्रकोप उन्हें ऐसा सोचने से मना करता था। उल्लेखनीय है कि 19वीं सदी के उत्तरार्ध में धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आंदोलन चल रहे थे। इस समय भारतीय समाज में व्याप्त धार्मिक और सामाजिक कुरीतियों जैसे अधंविश्वास, लैंगिग असमानता, जाति - प्रथा आदि के विरुद्ध देश के विभिन्न हिस्सों में विभिन्न सुधारको ने अभियान - सा चला रखा था। दयानन्द सरस्वती, एनी बेसेंट,राजा राममोहन राय जैसे लोगो ने इस सदंर्भ में महत्वपूर्ण योगदान दिया। उन्हीं परिवेशों में विवेकानन्द ने भी अपने सुविचारों से न केवल भारतीयों को स्वयं पर विश्वास करना सिखाया बल्कि भारतीय समाज में व्याप्त कुरीतियों से मुक्त होने की राह भी दिखाई।
उन्होंने एक ऐसे समाज एवं राष्ट्र की कल्पना की जिसमें धर्म या जाति के आधार पर मनुष्य-मनुष्य में भेद न रहे वेदांत के सिद्धांत को उन्होंने इसी रूप में रखा। इस आलोक में उन्होंने समता के सिद्धांत को महत्व दिया उनका मानना था कि भारत के पतन का मूल कारण यहां की जनता की उपेक्षा करना है। अतः यह आवश्यक है कि भारतीयों को भोजन एवं जीवन जीने की अन्य मूलभूत आवश्यकताएं यथाशीघ्र उपलब्ध कराई जाएं। इसके लिए उन्होंने कृषि, ग्रामोद्योग आदि क्षेत्रों में विकसित तरीकों एवं तकनीकों की जानकारी देने की बात कही। इसके अतिरिक्त, उन्होंने यह भी देखा कि भारत में निर्धनता एक बड़ा कारण है कि निम्न स्तर पर जीवनयापन करने वाले लोगों ने अपनी क्षमताओं पर विश्वास करना छोड़ दिया है इसलिए स्वामी विवेकानन्द ने सबसे पहले उन्हें अपने ऊपर विश्वास करने की बात कही। इसके लिए विवेकानन्द ने वेदांत में शिक्षित आत्मा के देवत्व के सिद्धांत के जरिए प्रेरक सन्देश देने शुरू किए। उनका मंतव्य था कि उच्च जाति के लोगों ने सदियों से निम्न जाति को प्रताड़ित किया है। यह स्थिति भारत की एकता के लिए नुकसानदायक है। अतः जहां एक ओर उच्च जाति के लोगों का यह दायित्व होना चाहिए कि वे निम्न जाति के लोगों की शिक्षा की पर्याप्त व्यवस्था करें और उन्हें सांस्कृतिक रूप से सपंन्न बनाएं, वहीं निम्न जाति के लोगों को भी पूर्व समय की प्रताड़नाओं की टीस भुलाकर अपनी प्रगति का प्रयास करना चाहिए।
2047 में भारत की स्वतंत्रता की 100वीं वर्षगांठ होगी और इस ऐतिहासिक काल तक पहुंचने में सिर्फ दो दशक का समय शेष रह गया है, इसलिए बहुत जरूरी हो जाता है कि हम बहुत तेजी से उन सारी पहलुओं की बारीकी से जांच परख कर उन पर काम करना शुरू कर दें जो विवेकानन्द जी के सपनों के भारत से साम्यता रखता है। यह एक संयोग ही है कि आज भारत दुनिया की सर्वाधिक युवा शक्ति वाला देश है युवाओं में नई सोच तथा नई ऊर्जा का भंडार होता है एवं वे स्वाभाविक तौर पर पुरानी परिपाटी पर चलना पसंद नहीं करते स्वामी जी के सपनों को साकार करने में युवा बहुत ही महत्वपूर्ण भूमिका अदा कर सकते हैं बस जरूरी है उनकी इस ऊर्जा का इस्तेमाल सही तरीके और सही रूप में करने की।
सरकार, समाज एवं प्रत्येक नागरिक का यह दायित्व है कि हम अपने कर्तव्यों का सही रूप में निर्वहन करें एवं अपनी एवं संकीर्ण मानसिकता से उबरें, क्योंकि यह कई बार देखने में आया है कि कुछ लोग उत्तर भारत बनाम दक्षिण भारत, पूर्वोत्तर भारत बनाम शेष भारत, हिन्दी भाषा बनाम क्षेत्रीय भाषा आदि विवादों को जन्म देते रहते हैं। हमें यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि ऐसा करके हम एक प्रकार से अपने पूर्वजो एवं महापुरुषों का तिरस्कार कर रहे होते हैं जिन्होंने इस भारत को अपने खून पसीने से सींचा है।
समाज के सबसे वंचित, पीड़ित, किसान, आदिवासी, बच्चे, महिलाएं, एवं बुजुर्गो पर विशेष ध्यान देने की जरूरत है। हमें इस तरह की सुविधाएं एवं वातावरण मुहैया करानी चाहिए ताकि वे गरिमापूर्ण जीवन जी सकें। हमें इसरो से प्रेरणा लेकर अन्य सगंठनों में भी काम करने की जरूरत है जो कम संसाधनों का रोना नहीं रोता बल्कि सीमित संसाधनों में ही दिन प्रतिदिन नये-नये कीर्तिमान स्थापित कर दुनिया को अचंभित कर रहा है। अगर इसरो ऐसा कर सकता है तो देश के अन्य सगंठन क्यों नहीं? मुझे लगता है कि देश के बाकी सगंठन एवं समहू भी इसरो जसै कीर्तिमान स्थापित कर सकते हैं बशर्ते वें सामूहिक प्रयास में पुरे मनोयोग से जुट जाएं। ब्राजील के प्रसिद्ध उपन्यासकार पाओलो कोएल्हो ने अपनी विश्व प्रसिद्ध कृति 'दि अल्केमिस्ट' में लिखा है कि "जब आप वास्तव में कोई चीज पाना चाहते हैं तो सम्पूर्ण सृष्टि उसकी प्राप्ति में मदद के लिए षड्यत्रं रचती है।"
सम्पूर्ण चर्चा का सार यह है कि हमें चुनौतियों से डर कर भागना नहीं है बल्कि सकारात्मक तरीके से उसका डट कर मुकाबला कर नई इबारत लिखना है। प्रत्येक नागरिक को अपनी क्षमताओं का अधिकतम इस्तेमाल करते हुए अपने कर्तव्यों का सही से निर्वहन कर स्वामी विवेकानन्द जी के सपनों के भारत को साकार रूप देने मेंअपनी-अपनी भूमिका अदा करनी है। इसी में सबका कल्याण निहित है। एक प्रसिद्ध कहावत है कि 'अगर घर में खुशहाली आएगी तो फायदा सबका होगा'। अंत में युवा कवि एवं भारतीय प्रशासनिक अधिकारी निशांत जैन की कविता 'सकारात्मक सोच' हमें इस दिशा में आगे बढ़ने के लिए निरंतर प्रेरित कर रही है-
सकारात्मक सोच संग उत्साह और उल्लास लिये,
जीतेंगे हर हारी बाजी, मन में यह विश्वास लिये।
ऊहापोह - अटकलें- उलझनें, अवसादों का कर अवसान,
हो बाधाएं कि तनी पथ में, चेहरों पर बस हो मुस्कान।
अंतर्मन में भरी हो ऊर्जा ,नई शक्ति का हो संचार,
डटकर चुनौतियों से लड़कर, जीतेंगे सारा संसार।
ले संकल्प सृजन का मन में, उम्मीदों से हो भरपूर,
धुन के पक्के उस राही से, मंजिल है फिर कितनी दूर।
जगे ज्ञान और प्रेम धरा पर,गूंजे कुछ ऐसा सन्देश,
नई चेतना से जागृत हो, सुप्त पड़ा यह मेरा देश।
इस लेख के बारे में,
भोगेन्द्र कुमार सिंह द्वारा लिखित इस लेख के अनुसार विवेकानंद के सपनों को साकार रूप देने की दिशा में हमें सकारात्मक सोच का अनुसरण करना चाहिए। वहां कई चुनौतियों का सामना करना होगा, लेकिन हमें उन्हें ठीक से मुकाबला करना चाहिए। युवा शक्ति को उच्च ऊर्जा और सकारात्मक उत्साह के साथ अपनी क्षमताओं का सही रूप से उपयोग करना चाहिए। उन्हें धर्म, जाति, लिंग आदि के आधार पर नहीं, बल्कि समाज में समानता और साहस के साथ अपना योगदान देना चाहिए। सभी सामाजिक वर्गों को समृद्धि की दिशा में अग्रणी बनाने के लिए सहयोग करना होगा। इस प्रकार, हम स्वामी विवेकानंद के सपनों को साकार रूप में पूरा कर सकते हैं और भारत को एक महाशक्ति बना सकते हैं।
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